रामचरित मानस खंड-11: श्रीराम के वियोग में दशरथ का निधन, भरतजी का माता कैकेयी पर गुस्सा होना

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(राम आ रहे हैं…जी हां, सदियों के लंबे इंतजार के बाद भव्य राम मंदिर बनकर तैयार है और प्रभु श्रीराम अपनी पूरी भव्यता-दिव्यता के साथ उसमें विराजमान हो रहे हैं. इस पावन अवसर पर aajtak.in अपने पाठकों के लिए लाया है तुलसीदास द्वारा अवधी में लिखी गई राम की कथा का हिंदी रूपांतरण (साभारः गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस).  इस श्रृंखला ‘रामचरित मानस’ में आप पढ़ेंगे भगवान राम के जन्म से लेकर लंका पर विजय तक की पूरी कहानी. आज पेश है इसका 11वां खंड…)

महामुनि वाल्मीकी के कहने पर श्रीरामजी, सीताजी और भाई लक्ष्मण के साथ चित्रकूट पहुंचे. तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मन्दाकिनी में स्नान किया. श्रीरामचंद्रजी ने कहा- लक्ष्मण! बड़ा अच्छा घाट है. अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो. तब लक्ष्मणजी ने पयस्विनी नदी के उत्तर के ऊंचे किनारे को देखा और कहा कि इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला फिरा हुआ है. नदी (मन्दाकिनी) उस धनुष की प्रत्यंचा है और शम, दम, दान बाण हैं. कलियुग के समस्त पाप उसके अनेकों हिंसक पशु रूप निशाने हैं. चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामने से मारता है. ऐसा कहकर लक्ष्मणजी ने स्थान दिखलाया. स्थान को देखकर श्रीरामचंद्रजी ने सुख पाया. जब देवताओं ने जाना कि श्रीरामचंद्रजी का मन यहां रम गया तब वे देवताओं के प्रधान थवई (मकान बनाने वाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर चले. सब देवता कोल-भीलों के वेष में आए और उन्होंने दिव्य पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिए. दो ऐसी सुंदर कुटियां बनायीं जिनका वर्णन नहीं हो सकता. उनमें एक बड़ी सुंदर छोटी-सी थी और दूसरी बड़ी थी. लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित प्रभु श्रीरामचंद्रजी सुंदर घास-पत्तों के घर में शोभायमान हैं. मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसन्त ऋतु के साथ सुशोभित हो.

उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आए और श्रीरामचंद्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया. देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनन्दित हुए. फूलों की वर्षा करके देवसमाज ने कहा- हे नाथ! आज आपका दर्शन पाकर हम सनाथ हो गए. फिर विनती करके उन्होंने अपने दुख सुनाए और दुखों के नाश का आश्वासन पाकर हर्षित होकर अपने-अपने स्थानों को चले गए. श्रीरघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन-सुनकर बहुत-से मुनि आए. रघुकुल के चंद्रमा श्रीरामचंद्रजी ने मुदित हुई मुनिमंडली को आते देखकर दंडवत प्रणाम किया. मुनिगण श्रीरामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हैं. वे सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचंद्रजी की छवि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं. प्रभु श्रीरामचंद्रजी ने यथायोग्य सम्मान करके मुनिमंडली को विदा किया. श्रीरामचंद्रजी के आ जाने से वे सब अपने-अपने आश्रमों में अब स्वतन्त्रता के साथ योग, जप, यज्ञ और तप करने लगे. यह (श्रीरामजी के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियां उनके घर ही पर आ गई हों. वे दोनों में कन्द, मूल, फल भर-भरकर चले. मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों. उनमें से जो दोनों भाइयों को पहले देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं. इस प्रकार श्रीरामचंद्रजी की सुंदरता कहते-सुनते सबने आकर श्रीरघुनाथजी के दर्शन किए.

भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यंत अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं. वे मुग्ध हुए जहां-के-तहां मानो चित्रलिखे से खड़े हैं. उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है. श्रीरामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना, और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया. वे बार-बार प्रभु श्रीरामचंद्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं. हे नाथ! प्रभु के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए. हे कोसलराज! हमारे ही भाग्य से आपका यहां शुभागमन हुआ है. हे नाथ! जहां-जहां आपने अपने चरण रखे हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरने वाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गए. हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया. आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है. यहां सभी ऋतुओं में आप सुखी रहिएगा. हम लोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे. हे प्रभो! यहां के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएं और खोह (दर्रे) सब पग-पग हमारे देखे हुए हैं. हम वहां-वहां आपको शिकार खिलाएंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखाएंगे. हम कुटुम्ब समेत आपके सेवक हैं. हे नाथ! इसलिए हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजिएगा.

जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के धाम प्रभु श्रीरामचंद्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है. श्रीरामचंद्रजी को केवल प्रेम प्यारा है; जो जानने वाला हो, वह जान ले. तब श्रीरामचंद्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए (प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया. फिर उनको विदा किया. वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते-सुनते घर आए. इस प्रकार देवता और मुनियों को सुख देने वाले दोनों भाई सीताजी समेत वन में निवास करने लगे. जब से श्रीरघुनाथजी वन में आकर रहे तब से वन मंगलदायक हो गया. अनेकों प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उनपर लिपटी हुई सुंदर बेलों के मंडप तने हैं. वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं. मानो वे देवताओं के वन (नन्दनवन) को छोड़कर आए हों. भौंरों की पंक्तियां बहुत ही सुंदर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है. नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देने वाली और चित्त को चुराने वाली तरह-तरह की बोलियां बोलते हैं. हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन- ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ विचरते हैं. शिकार के लिए फिरते हुए श्रीरामचंद्रजी की छवि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनन्दित होते हैं.

जगत में जहां तक जितने देवताओं के वन हैं, सब श्रीरामजी के वन को देखकर सिहाते हैं. गंगा, सरस्वती, सूर्यकुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य नदियां, सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मन्दाकिनी की बड़ाई करते हैं. उदयाचल, अस्ताचल, कैलास, मन्दराचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं, और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं. विन्ध्याचल बड़ा आनन्दित है, उसके मन में सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है. चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण-अंकुरादि की सभी जातियां पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं- देवता दिन-रात ऐसा कहते हैं. आंखों वाले जीव श्रीरामचंद्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं, और अचर (पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि) भगवान की चरण-रजका स्पर्श पाकर सुखी होते हैं. यों सभी परमपद (मोक्ष) के अधिकारी हो गए. वह वन और पर्वत स्वाभाविक ही सुंदर, मंगलमय और अत्यंत पवित्रों को भी पवित्र करने वाला है. उसकी महिमा किस प्रकार कही जाय, जहां सुख के समुद्र श्रीरामजी ने निवास किया है. क्षीरसागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहां सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचंद्रजी आकर रहे, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुखवाले जो लाख शेषजी हों तो वे भी नहीं कह सकते.

उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूं. कहीं पोखरे का (क्षुद्र) कछुआ भी मन्दराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्म से श्रीरामचंद्रजी की सेवा करते हैं. उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता. क्षण-क्षण पर श्रीसीतारामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयों, माता-पिता और घर की याद नहीं करते. श्रीरामचंद्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत ही सुखी रहती हैं. क्षण-क्षण पर पति श्रीरामचंद्रजी के चंद्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं जैसे चकोरकुमारी (चकोरी) चंद्रमा को देखकर! स्वामी का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती हैं जैसे दिन में चकवी! सीताजी का मन श्रीरामचंद्रजी के चरणों में अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है. प्रियतम (श्रीरामचंद्रजी) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है. मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं. मुनियों की स्त्रियां सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कन्द-मूल-फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है. स्वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और पत्तों की सेज) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देने वाली है. जिनके देखने मात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग-विलास मोहित कर सकते हैं! जिन श्रीरामचंद्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग-विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्रीरामचंद्रजी की प्रिय पत्नी और जगत की माता सीताजी के लिए यह कुछ भी आश्चर्य नहीं है.

सीताजी और लक्ष्मणजी को जिस प्रकार सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वही करते और वही कहते हैं. भगवान प्राचीन कथाएं और कहानियां कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा सीताजी अत्यंत सुख मानकर सुनते हैं. जब-जब श्रीरामचंद्रजी अयोध्या की याद करते हैं, तब-तब उनके नेत्रों में जल भर आता है. माता-पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके कृपा के समुद्र प्रभु श्रीरामचंद्रजी दुखी हो जाते हैं, किन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं. श्रीरामचंद्रजी को दुखी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाहीं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है. तब धीर, कृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिए चन्दनरूप रघुकुल को आनन्दित करने वाले श्रीरामचंद्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएं कहने लगते हैं, जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं. लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्रीरामचंद्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी शची और पुत्र जयन्त सहित बसता है. प्रभु श्रीरामचंद्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी संभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की. इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी और श्रीरामचंद्रजी की ऐसी सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य शरीर की करते हैं.

पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी प्रभु इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं. उधर प्रभु श्रीरामचंद्रजी को पहुंचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मन्त्री (सुमन्त्र) सहित देखा. मन्त्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दुख हुआ, वह कहा नहीं जाता. निषाद को अकेले आया देखकर सुमन्त्र हा राम! हा राम! हा सीते! हा लक्ष्मण! पुकारते हुए, बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े. रथ के घोड़े दक्षिण दिशा की ओर (जिधर श्रीरामचंद्रजी गए थे) देख-देखकर हिनहिनाते हैं. मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों. वे न तो घास चरते हैं, न पानी पीते हैं. केवल आंखों से जल बहा रहे हैं. श्रीरामचंद्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गए. तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा- हे सुमन्त्रजी! अब विषाद को छोड़िए. आप पंडित और परमार्थ के जानने वाले हैं. विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिए. कोमल वाणी से भांति-भांति की कथाएं कहकर निषाद ने जबर्दस्ती लाकर सुमन्त्र को रथ पर बैठाया. परंतु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गए कि रथ को हांक नहीं सकते. उनके हृदय में श्रीरामचंद्रजी के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है. घोड़े तड़फड़ाते हैं और ठीक रास्ते पर नहीं चलते. मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिए गए हों. वे श्रीरामचंद्रजी के वियोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं. वे तीक्ष्ण दुख से व्याकुल हैं.

जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर-हिकरकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं. घोड़ों की विरहदशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे मणि के बिना सांप व्याकुल होता है. मन्त्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया. तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए. निषादराज गुह सारथी (सुमन्त्रजी) को पहुंचाकर लौटा. उसके विरह और दुख का वर्णन नहीं किया जा सकता. वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले. सुमन्त्र और घोड़ों को देख-देखकर वे भी क्षण-क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे. व्याकुल और दुख से दीन हुए सुमन्त्रजी सोचते हैं कि श्रीरघुवीर के बिना जीने को धिक्कार है. आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं. अभी श्रीरामचंद्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश क्यों नहीं ले लिया. ये प्राण अपयश और पाप के भांड़े हो गए. अब ये किस कारण कूच नहीं करते? हाय! नीच मन (बड़ा अच्छा) मौका चूक गया. अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं हो जाते! सुमन्त्र हाथ मल-मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं. मानो कोई कंजूस धन का खजाना खो बैठा हो. वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो!

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जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधुसम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी ले और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मन्त्री सुमन्त्र पछता रहे हैं. जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधुस्वभाव की, समझदार और मन, वचन, कर्म से पति को ही देवता मानने वाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर (पति से अलग) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जैसे भयानक सन्ताप होता है, वैसे ही मन्त्री के हृदय में हो रहा है. नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मन्द हो गई है. कानों से सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुई बुद्धि बेठिकाने हो रही है. ओठ सूख रहे हैं, मुंह में लाटी लग गई है. किन्तु प्राण नहीं निकलते; क्योंकि हृदय में अवधिरूपी किवाड़ लगे हैं (अर्थात् चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रही है). सुमन्त्रजी के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता. ऐसा मालूम होता है मानो इन्होंने माता-पिता को मार डाला हो. उनके मन में रामवियोगरूपी हानि की महान ग्लानि (पीड़ा) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो. मुंह से वचन नहीं निकलते. हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूंगा? श्रीरामचंद्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने में संकोच करेगा (अर्थात् मेरा मुंह नहीं देखना चाहेगा). नगर के सब व्याकुल स्त्री-पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूंग. जब दीन-दुखी सब माताएं पूछेंगी, तब हे विधाता! मैं उन्हें क्या कहूंगा? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उन्हें कौन-सा सुखदाई संदेसा कहूंगा?

श्रीरामजी की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे नई ब्याई हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उनके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूंगा कि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गए! जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा! हाय! अयोध्या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब दुख से दीन महाराज, जिनका जीवन श्रीरघुनाथजी के दर्शन के ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे, तब मैं कौन-सा मुंह लेकर उन्हें उत्तर दूंगा कि मैं राजकुमारों को कुशलपूर्वक पहुंचा आया हूं! लक्ष्मण, सीता और श्रीराम का समाचार सुनते ही महाराज तिनके की तरह शरीर को त्याग देंगे. प्रियतम (श्रीरामजी) रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूं कि विधाता ने मुझे यह ‘यातनाशरीर’ ही दिया है जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिए मिलता है. सुमन्त्र इस प्रकार मार्ग में पछतावा कर रहे थे, इतने में ही रथ तुरंत तमसा नदी के तटपर आ पहुंचा. मन्त्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया. वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमन्त्र के पैरों पड़कर लौटे. नगर में प्रवेश करते मन्त्री ग्लानि के कारण ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आए हों. सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया. जब सन्ध्या हुई तब मौका मिला.

अंधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे चुपके से महल में घुसे. जिन-जिन लोगों ने यह समाचार सुन पाया, वे सभी रथ देखने को राजद्वार पर आए. रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे हैं जैसे घाम में ओले! नगर के स्त्री-पुरुष कैसे व्याकुल हैं जैसे जल के घटने पर मछलियां व्याकुल होती हैं. मन्त्री का अकेले ही आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया. राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवासस्थान हो. अत्यंत आर्त होकर सब रानियां पूछती हैं; पर सुमन्त्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गई है. न कानों से सुनाई पड़ता है और न आंखों से कुछ सूझता है. वे जो भी सामने आता है उस उससे पूछते हैं- कहो, राजा कहां हैं? दासियां मन्त्री को व्याकुल देखकर उन्हें कौसल्याजी के महल में लिवा गईं. सुमन्त्र ने जाकर वहां राजा को कैसा (बैठे) देखा मानो बिना अमृत का चंद्रमा हो. राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन (उदास) पृथ्वी पर पड़े हुए हैं. वे लंबी सांसें लेकर इस प्रकार सोच करते हैं मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच कर रहे हों. राजा क्षण-क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं. ऐसी विकल दशा है मानो गिद्धराज जटायु का भाई सम्पाती पंखों के जल जाने पर गिर पड़ा हो. राजा बार-बार ‘राम, राम’, ‘हा स्नेही राम!’ कहते हैं, फिर ‘हा राम, हा लक्ष्मण, हा जानकी’ ऐसा कहने लगते हैं.

मन्त्री ने देखकर ‘जयजीव’ कहकर दंडवत प्रणाम किया. सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले- सुमन्त्र! कहो, राम कहां हैं? राजा ने सुमन्त्र को हृदय से लगा लिया. मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो. मन्त्री को स्नेह के साथ पास बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे- हे मेरे प्रेमी सखा! श्रीराम की कुशल कहो. बताओ, श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी कहां हैं? उन्हें लौटा लाए हो कि वे वन को चले गए? यह सुनते ही मन्त्री के नेत्रों में जल भर आया. शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे- सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो. श्रीरामचंद्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर करके राजा हृदय में सोच करते हैं और कहते हैं- मैंने राजा होने की बात सुनाकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस (राम) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछुड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गए, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा? हे सखा ! श्रीराम, जानकी और लक्ष्मण जहां हैं, मुझे भी वहीं पहुंचा दो. नहीं तो मैं सत्य भाव से कहता हूं कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं. राजा बार-बार मन्त्री से पूछते हैं- मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ. हे सखा ! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आंखों दिखा दो. मन्त्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले- महाराज! आप पंडित और ज्ञानी हैं. हे देव! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान पुरुषों में श्रेष्ठ हैं. आपने सदा साधुओं के समाज की सेवा की है.

जन्म-मरण, सुख-दुख के भोग, हानि-लाभ, प्यारों का मिलना-बिछुड़ना, ये सब हे स्वामी! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं. मूर्ख लोग सुख में हर्षित होते और दुख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं. हे सबके हितकारी! आप विवेक विचार कर धीरज धरिए और शोक का परित्याग कीजिए. श्रीरामजी का पहला निवास तमसा के तटपर हुआ, दूसरा गंगातीर पर. सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे. केवट (निषादराज) ने बहुत सेवा की. वह रात सिंगरौर (शृंगवेरपुर) में ही बिताई. दूसरे दिन सबेरा होते ही बड़ का दूध मंगवाया और उससे श्रीराम-लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाए. तब श्रीरामचंद्रजी के सखा निषादराज ने नाव मंगवाई. पहले प्रिया सीताजी को उसपर चढ़ाकर फिर श्रीरघुनाथजी चढ़े. फिर लक्ष्मणजी ने धनुष-बाण सजाकर रखे और प्रभु श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े. मुझे व्याकुल देखकर श्रीरामचंद्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले- हे तात! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी ओर से बार-बार उनके चरणकमल पकड़ना. फिर पांव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी! आप मेरी चिन्ता न कीजिए.आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारा कुशल-मंगल होगा.

हे पिताजी! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊंगा. आज्ञा का भलीभांति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशलपूर्वक फिर लौट आऊंगा. सब माताओं के पैरों पड़-पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके- तुम वही प्रयत्न करना जिसमें कोसलपति पिताजी कुशल रहें. बार-बार चरणकमलों को पकड़कर गुरु वसिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि वे वही उपदेश दें जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें. हे तात! सब पुरवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा (अनुरोध) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें. भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना; कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना. और हे भाई! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपने को अन्त तक निबाहना. हे तात! राजा (पिताजी) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी किसी तरह भी मेरा सोच न करें. लक्ष्मणजी ने कुछ कठोर वचन कहे. किन्तु श्रीरामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार-बार अपनी सौगंध दिलाई और कहा- हे तात! लक्ष्मण का लड़कपन वहां न कहना.

प्रणामकर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, परंतु स्नेहवश वे शिथिल हो गईं. उनकी वाणी रुक गई, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया. उसी समय श्रीरामचंद्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिए नाव चला दी. इस प्रकार रघुवंशतिलक श्रीरामचंद्रजी चल दिए और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा खड़ा देखता रहा. मैं अपने क्लेश को कैसे कहूं, जो श्रीरामजी का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर मन्त्री की वाणी रुक गई और वे हानि की ग्लानि और सोच के वश हो गए. सारथी सुमन्त्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी. वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया. मानो मछली को मांजा व्याप गया हो (पहली वर्षा का जल लग गया हो). सब रानियां विलाप करके रो रही हैं. उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाय? उस समय के विलाप को सुनकर दुख को भी दुख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया! राजा के रावले (रनिवास) में रोने का शोर सुनकर अयोध्याभर में बड़ा भारी कुहराम मच गया! ऐसा जान पड़ता था मानो पक्षियों के विशाल वन में रात के समय कठोर वज्र गिरा हो. राजा के प्राण कंठ में आ गए.मानो मणि के बिना सांप व्याकुल (मरणासन्न) हो गया हो. इन्द्रियां सब बहुत ही विकल हो गयीं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया हो.

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कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला! तब श्रीरामचंद्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं- हे नाथ! आप मन में समझकर विचार कीजिए कि श्रीरामचंद्र का वियोग अपार समुद्र है. अयोध्या जहाज है और आप उसके कर्णधार हैं. सब प्रियजन (कुटुम्बी और प्रजा) ही यात्रियों का समाज हैं जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है. आप धीरज धरिएगा तो सब पार पहुंच जाएंगे. नहीं तो सारा परिवार डूब जाएगा. हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजिएगा तो श्रीराम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे. प्रिय पत्नी कौसल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आंखें खोलकर देखा! मानो तड़पती दीन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो. धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले- सुमन्त्र! कहो, कृपालु श्रीराम कहां हैं? लक्ष्मण कहां हैं? स्नेही राम कहां हैं? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहां है? राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं. वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती ही नहीं. राजा को अंधे तपस्वी (श्रवणकुमार के पिता) के शाप की याद आ गई. उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनाई. उस इतिहास का वर्णन करते-करते राजा व्याकुल हो गए और कहने लगे कि श्रीराम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है. मैं उस शरीर को रखकर क्या करूंगा जिसने मेरा प्रेम का प्रण नहीं निबाहा?

हा रघुकुल को आनंद देने वाले मेरे प्राणप्यारे राम! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गए. हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुवर! हा पिता के चित्तरूपी चातक के हित करने वाले मेघ! राम-राम कहकर, फिर राम कहकर, फिर राम-राम कहकर और फिर राम कहकर राजा दशरथ श्रीराम के विरह में शरीर त्याग कर सुरलोक को सिधार गए. जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्माण्डों में छा गया. जीते-जी तो श्रीरामचंद्रजी के चंद्रमा के समान मुख को देखा और श्रीराम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया. सब रानियां शोक के मारे व्याकुल होकर रो रही हैं. वे राजा के रूप, शील, बल और तेज का बखान कर-करके अनेकों प्रकार से विलाप कर रही हैं और बार-बार धरती पर गिर-गिर पड़ती हैं. दास-दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगरनिवासी घर-घर रो रहे हैं. कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भंडार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गए! सब कैकेयी को गालियां देते हैं, जिसने संसारभर को बिना नेत्र का (अंधा) कर दिया! इस प्रकार विलाप करते रात बीत गई. प्रातःकाल सब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि आए. तब वसिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया.

वसिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया. फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा- तुमलोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ. राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से न कहना. जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है. मुनि की आज्ञा सुनकर धावन (दूत) दौड़े. वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले. जब से अयोध्या में अनर्थ प्रारम्भ हुआ, तभी से भरतजी को अपशकुन होने लगे. वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर (उन स्वप्नों के कारण) करोड़ों तरह की बुरी कल्पनाएं किया करते थे. अनिष्ट शान्ति के लिए वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे. अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे. महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता-पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशलक्षेम मांगते थे.

भरतजी इस प्रकार मन में चिन्ता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे. गुरुजी की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े. हवा के समान वेगवाले घोड़ों को हांकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लांघते हुए चले. उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था. मन में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाऊं. एक-एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था. इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुंचे. नगर में प्रवेश करते समय अपशकुन होने लगे.

गदहे और सियार विपरीत बोल रहे हैं. यह सुन-सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है. तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं. नगर बहुत ही भयानक लग रहा है. श्रीरामजी के वियोगरूपी बुरे रोग से सताए हुए पक्षी-पशु, घोड़े-हाथी ऐसे दुखी हो रहे हैं कि देखे नहीं जाते. नगर के स्त्री-पुरुष अत्यंत दुखी हो रहे हैं. मानो सब अपनी सारी सम्पत्ति हार बैठे हों. नगर के लोग मिलते हैं, पर कुछ कहते नहीं; गौंसे (चुपके से) जोहार (वन्दना) करके चले जाते हैं. भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद छा रहा है. बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते. मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है! पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के लिए चांदनी रूपी कैकेयी बड़ी हर्षित हुई. वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत-शत्रुघ्न को महल में ले आई. भरत ने सारे परिवार को दुखी देखा. मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो. एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद में भर रही हो. पुत्र को सोचवश और मनमारे (बहुत उदास) देखकर वह पूछने लगी- हमारे नैहर में कुशल तो है? भरतजी ने सब कुशल कह सुनाई. फिर अपने कुल की कुशल-क्षेम पूछी. भरतजी ने कहा- कहो, पिताजी कहां हैं? मेरी सब माताएं कहां हैं? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम-लक्ष्मण कहां हैं?

पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पापिनी कैकेयी भरत के कानों में और मन में शूल के समान चुभने वाले वचन बोली- हे तात! मैंने सारी बात बना ली थी. बेचारी मन्थरा सहायक हुई. पर विधाता ने बीच में जरा-सा काम बिगाड़ दिया. वह यह कि राजा देवलोक को पधार गए. भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश (बेहाल) हो गए. मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया हो. वे ‘तात! तात! हा तात!’ पुकारते हुए अत्यंत व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े और विलाप करने लगे कि हे तात! मैं आपको स्वर्ग के लिए चलते समय देख भी न सका. हाय! आप मुझे श्रीरामजी को सौंप भी नहीं गए! फिर धीरज धरकर वे संभलकर उठे और बोले- माता! पिता के मरने का कारण तो बताओ. पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी. मानो मर्मस्थान को पाछकर (चाकू से चीरकर) उसमें जहर भर रही हो. कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से आखिर तक बड़े प्रसन्न मन से सुना दी. श्रीरामचंद्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इस सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गए. पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी. मानो जलेपर नमक लगा रही हो. वह बोली- हे तात! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं. उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया.

जीवनकाल में ही उन्होंने जन्म लेने के सम्पूर्ण फल पा लिए और अन्त में वे इन्द्रलोक को चले गए. ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाजसहित नगर का राज्य करो. राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गए. मानो पके घावपर अंगार छू गया हो. उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लंबी सांस लेते हुए कहा- पापिनी! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया. हाय! यदि तेरी ऐसी ही अत्यंत बुरी रुचि (दुष्ट इच्छा) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला! मुझे सूर्यवंश सा वंश, दशरथजी सरीखे पिता और राम-लक्ष्मण-से भाई मिले. पर हे जननी! मुझे जन्म देने वाली माता तू हुई! क्या किया जाए! विधाता से कुछ भी वश नहीं चलता. अरी कुमति ! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो गए? वरदान मांगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गई? तेरे मुंह में कीड़े नहीं पड़ गए? राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया? जान पड़ता है, विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी. स्त्रियों के हृदय की गति (चाल) विधाता भी नहीं जान सके. वह सम्पूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है.

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फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे. वे भला, स्त्री-स्वभाव को कैसे जानते? अरे, जगत के जीव-जन्तुओं में ऐसा कौन है जिसे श्रीरघुनाथजी प्राणों के समान प्यारे नहीं हैं. वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गए! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मुंह में स्याही पोतकर उठकर मेरी आंखों की ओट में जा बैठ. विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विरोध करने वाले (तेरे) हृदय से उत्पन्न किया अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया. मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूं. माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता. उसी समय भांति-भांति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी (मन्थरा) वहां आई. उसे सजी देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गए. मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो. उन्होंने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी. वह चिल्लाती हुई मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी. उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दांत टूट गए और मुंह से खून बहने लगा. वह कराहती हुई बोली- हाय दैव! मैंने क्या बिगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया. उसकी यह बात सुनकर और उसे नख से शिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़-पकड़कर उसे घसीटने लगे. तब दयानिधि भरतजी ने उसको छुड़ा दिया और दोनों भाई तुरंत कौसल्याजी के पास गए.

कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही हैं, दुख के बोझ से शरीर सूख गया है. ऐसी दिख रही हैं मानो सोने की सुंदर कल्पलता को वन में पाला मार गया हो. भरत को देखते ही माता कौसल्याजी उठ दौड़ीं. पर चक्कर आ जाने से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं. यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गए और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े. फिर बोले- माता! पिताजी कहां हैं? उन्हें दिखा दे. सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम-लक्ष्मण कहां हैं? उन्हें दिखा दे. कैकेयी जगत में क्यों जन्मी? और यदि जन्मी ही तो फिर बांझ क्यों न हुई? जिसने कुल के कलंक, अपयश के भांड़े और प्रियजनों के द्रोही मुझ जैसे पुत्र को उत्पन्न किया. तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है? जिसके कारण, हे माता! तेरी यह दशा हुई! पिताजी स्वर्ग में हैं और श्रीरामजी वन में हैं.

केतु के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूं. मुझे धिक्कार है! मैं बांस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दुख और दोषों का भागी बना. भरतजी के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर संभलकर उठीं. उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आंसू बहाने लगीं. सरल स्वभाववाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया; मानो श्रीरामजी ही लौटकर आ गए हों. फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगाया. शोक और स्नेह हृदय में समाता नहीं है.

कौसल्याजी का स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं- श्रीराम की माता का ऐसा स्वभाव क्यों न हो. माता ने भरतजी को गोद में बैठा लिया और उनके आंसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं- हे वत्स! मैं बलैया लेती हूं. तुम अब भी धीरज धरो. बुरा समय जानकर शोक त्याग दो. काल और कर्म की गति अमिट जानकर हृदय में हानि और ग्लानि मत मानो. हे तात! किसी को दोष मत दो. विधाता मुझको सब प्रकार से उलटा हो गया है, जो इतने दुखपर भी मुझे जिला रहा है. अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है? हे तात! पिता की आज्ञा से श्रीरघुवीर ने भूषण-वस्त्र त्याग दिए और वल्कल-वस्त्र पहन लिए. उनके हृदय में न कुछ विषाद था, न हर्ष! उनका मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न रोष (द्वेष). सबका सब तरह से सन्तोष कराकर वे वन को चले. यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गईं. श्रीराम के चरणों की अनुरागिणी वे किसी तरह न रहीं. सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले. श्रीरघुनाथ ने उन्हें रोकने के बहुत यत्न किए, पर वे न रहे. तब श्रीरघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गए. श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को चले गए. मैं न तो साथ ही गई और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे. यह सब इन्हीं आंखों के सामने हुआ. तो भी अभागे जीव ने शरीर नहीं छोड़ा.

अपने स्नेह की ओर देखकर मुझे लाज भी नहीं आती; राम-सरीखे पुत्र की मैं माता! जीना और मरना तो राजा ने खूब जाना. मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है. कौसल्याजी के वचनों को सुनकर भरत सहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा. राजमहल मानो शोक का निवास बन गया. भरत, शत्रुघ्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे. तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया. अनेकों प्रकार से भरतजी को समझाया और बहुत-सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनाईं. भरतजी ने भी सब माताओं को पुराण और वेदों की सुंदर कथाएं कहकर समझाया. दोनों हाथ जोड़कर भरतजी छलरहित, पवित्र और सीधी सुंदर वाणी बोले- जो पाप माता-पिता और पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होता हैं; जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं- कर्म, वचन और मन से होने वाले जितने पातक एवं उपपातक (बड़े-छोटे पाप) हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं; हे विधाता! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें. जो लोग श्रीहरि और श्रीशंकरजी के चरणों को छोड़कर भयानक भूत-प्रेतों को भजते हैं, हे माता! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे.

जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरों के पापों को कह देते हैं; जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदों की निन्दा करने वाले और विश्वभर के विरोधी हैं; जो लोभी, लम्पट और लालचियों का आचरण करने वाले हैं; जो पराए धन और पराई स्त्री की ताक में रहते हैं; हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊं, जिनका सत्संग में प्रेम नहीं है; जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं; जो मनुष्यशरीर पाकर श्रीहरि का भजन नहीं करते; जिनको हरि-हर (भगवान विष्णु और शंकरजी) का सुयश नहीं सुहाता; जो वेदमार्ग को छोड़कर वाम (वेदप्रतिकूल) मार्गपर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत को छलते हैं; हे माता! यदि मैं इस भेद को जानता भी होऊं तो शंकरजी मुझे उन लोगों की गति दें. माता कौसल्याजी भरतजी के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं- हे तात! तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही श्रीरामचंद्र के प्यारे हो. श्रीराम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण (प्रिय) हैं और तुम भी श्रीरघुनाथ को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो. चंद्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जल से विरक्त हो जाए, और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम श्रीरामचंद्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते. इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे.

ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरतजी को हृदय से लगा लिया. उनके स्तनों से दूध बहने लगा और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल छा गया. इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत गई. तब वामदेवजी और वसिष्ठजी आए. उन्होंने सब मन्त्रियों तथा महाजनों को बुलवाया. फिर मुनि वसिष्ठजी ने परमार्थ के सुंदर समयानुकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरतजी को उपदेश दिया. वसिष्ठजीने कहा- हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य के करने का अवसर है, उसे करो. गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा. वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया. भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अर्थात् प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया). वे रानियां भी श्रीराम के दर्शन की अभिलाषा से रह गईं. चन्दन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार (कपूर, गुग्गुल, केसर आदि) सुगन्ध-द्रव्यों के बहुत-से बोझ आए. सरयूजी के तटपर सुंदर चिता रचकर बनाई गई, जो ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो. इस प्रकार सब दाहक्रिया की गई और सबने विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी. फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरतजी ने पिता का दशगात्र-विधान (दस दिनों के कृत्य) किया.

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